Rajmata Krishna Kumari Ji: A Journey From a Princess to Marwar's Rajmata
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Rajmata Krishna Kumari Ji: A Journey From a Princess to Marwar’s Rajmata

It is with profound grief that Her Highness the Rajmata Sahiba of the erstwhile Marwar principality and former Member of Parliament of Jodhpur, Krishna Kumari Ji aged 92 passed away at 12.30am on July 03, 2018 and her last rituals were done at Jaswant Thada on July 04, 2018. It was Shocking news for every Jodhpurites – “राजमाता नहीं रही!” Rajmata Krishna Kumari Ji is survived by two daughters – Shailesh Kumari, former Jodhpur MP Chandresh Kumari and a son Gaj Singh Ji, erstwhile ruler of Marwar and ex-Rajya Sabha member.

A book is also there “The Royal Blue” by Ayodhya Prasad Gaur that depicts most of her life from the Princess of Dhangadhra to the Maharani of Marwar (Jodhpur). मारवाड़ के लिए कृष्णा कुमारी जी ही वो शख्शियत थी जिन्होंने इतिहास के तीन कालखंडों को प्रत्यक्ष अनुभव किया, उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

गुजरात क्षेत्र के राजपरिवार से मारवाड़ तक का सफर जहाँ राजशाही युग मे बीता, वहीं हनवंत सिंह जी के साथ वे उस कालखंड की गवाह भी बनीं और नई परिस्थितियों के हिसाब से खुद को तैयार भी किया जब, देश राजशाही से लोकतंत्र की और संक्रमण काल से गुजर रहा था। सही मायने में वे देश की अंतिम महारानी के रूप में उन्होंने मारवाड़ का शाही वैभव देखा तो राजपाट को सिमटते भी देखा। विभाजन के साथ मिली आजादी की भी वे साक्षी रही।

लोकतंत्र का उत्सव जब देश ने मनाया, तो मारवाड़ उन गिनेचुने राजपरिवारों में था जिसने इस नई कसौटी पर खुद को कसने के लिए चुनाव मैदान में उतरने की हिम्मत दिखाई।

कृष्णाकुमारी मूलतया गुजरात के ध्रांगध्रा राजघराने की राजकुमारी थीं। मारवाड़ के पूर्व महाराजा हनवंतसिंह से विवाह के बाद वे जोधपुर आई थीं। कृष्णाकुमारी मारवाड़ राजपरिवार की 5 पीढ़ियों की साक्षी रहीं। विवाह के वक्त तत्कालीन मारवाड़ के महाराजा उम्मेदसिंह थे। उनके बाद हनवंतसिंह महाराजा बने। उनके अवसान के बाद कृष्णाकुमारी के पुत्र गजसिंह का भी राजतिलक हुआ। कृष्णाकुमारी के पोते शिवराज सिंह हैं और पड़पोते सिराजदेव सिंह और पड़पोत्री वारा राजे हैं।

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कृष्णाकुमारी का जन्म अहमदाबाद से 125 किलोमीटर दूर स्थित ध्रागंध्रा रियासत में वर्ष 1926 में हुआ। वर्ष 1943 में उनका विवाह मारवाड़ के राजकुमार हनवंत सिंह के साथ हुआ। ससुराल में उनके गृह प्रवेश के साथ देश के अंतिम महल और विश्व प्रसिद्ध उम्मेद भवन पैलेस का उद्घाटन हुआ।

नौ वर्ष के वैवाहिक जीवन में दो सौतन भी देखी। पति के असामयिक निधन के पश्चात कृष्णाकुमारी ने न केवल अल्पआयु के अपने बच्चों को संभाला बल्कि मारवाड़ के शाही परिवार की विरासत को बिखरने नहीं दिया। हनवंत सिंह जी के 1952 में असामयिक निधन से जो खाली स्थान पैदा हुआ उसमें राजमाता कृष्णा कुमारी ने जो शालीन और संयंत रूप दिखाया, उसीका परिणाम था कि मारवाड़ की जनता ने उन्हें चुनावों में भी विजय दिलाई।

Rajmata Krishna Kumari Ji single-handedly managed the family and other responsibilities. उनके ममतामयी स्वभाव का परिणाम है कि आज जब देश के ज़्यादातर राज्यों में पूर्व राजघराने बैकग्राउंड में जा चुके हैं, जोधपुर में लगाव और आदर के साथ उनसे जुड़ाव बना हुआ है

A Journey From a Princess to Marwar’s Rajmata

ऐसा रहा राजमाता कृष्णा कुमारी का जीवन…

एक बहू
गुजरात की छोटी रियासत की राजकुमारी तीसरे बड़े स्टेट मारवाड़ की रानी बनीं। उस वक्त मारवाड़ स्टेट भारत की तीसरी सबसे बड़ी रियासत हुआ करती थी। सिर्फ 17 की उम्र में उनका विवाह मारवाड़ के तत्कालीन राजकुमार हनवंतसिंह से हुआ। गुजराती संस्कृति में पली-बढ़ी कृष्णाकुमारी ने बहुत जल्दी मारवाड़ के तौर-तरीके व संस्कार सीख लिए।

एक पत्नी
कृष्णाकुमारी ने पति हनवंतसिंह का हर कदम पर साथ दिया। उनका वैवाहिक जीवन भी कम उतार-चढ़ाव वाला नहीं रहा, फिर भले उनकी जिंदगी में सैंड्रा आई हों अथवा जुबैदा।

शादी के महज चार वर्ष पश्चात पति हनवंत सिंह मारवाड़ के महाराजा बने और कृष्णाकुमारी महारानी। इसी वर्ष उनके पति को इंग्लैंड की सैंडा मैकायर्ड से प्यार हो गया और दोनों ने वर्ष 1948 में शादी कर ली। इस दौरान कृष्णाकुमारी के तीन बच्चे हो गए। सैंडा मैकायर्ड से पति का विवाह लम्बा नहीं चला। इसी दौरान महाराजा हनवंत सिंह जुबैदा को दिल दे बैठे। 17 दिसम्बर 1950 को हनवन्त सिंह ने जुबैदा के साथ ब्यावर में विवाह कर लिया।

कृष्णा कुमारी ने परिवार की गरिमा को हमेशा सर्वोपरि रखा। पहले आम चुनाव में उन्होंने हनवंत सिंह का हर तरह से साथ दिया। इसी का नतीजा रहा कि उन चुनावों में हनवंत सिंह की पार्टी ने अधिकांश सीटें जीतीं। मतगणना में भारी बढ़त के बाद जुबैदा के साथ हवाई जहाज में हनवन्त सिंह घूमने निकले। इस दौरान उनका प्लने क्रैश हो गया।

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एक मां
हनवंत सिंह की मौत के वक्त कृष्णाकुमारी स्वयं भी 26 वर्ष की थीं। चंद्रेशकुमारी, शैलेषकुमारीगजसिंह बहुत ही छोटे थे। इतना ही नहीं, उन्होंने हनवंतसिंह की दूसरी पत्नी जुबैदा के बेटे हुकमसिंह उर्फ टूटूबन्ना को भी उसी ममत्व से पाला और पूरा वात्सल्य दिया। बेटे के बेहतर भविष्य के लिए उन्होंने गजसिंह को छोटी उम्र में ही सिर्फ 8 की उम्र में भी विदेश भेजने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई। सभी संतानों की पढ़ाई के साथ ही उनके अच्छे परिवारों में विवाह भी किए।

एक अभिभावक
कृष्णाकुमारी ने गजसिंह के इंग्लैंड से पढ़ाई कर लौटने तक परिवार, सामाजिक व जनता सभी की जिम्मेदारियां बखूबी निभाईं। बेटे के इंग्लैंड से पढ़ाई पूरी कर जोधपुर लौटने के बाद कृष्णा कुमारी के संघर्ष का दौर थम गया।
अब बागडोर पूरी तरह से बेटे गजसिंह ने संभाल अवश्य ली, लेकिन हर समय कृष्णा कुमारी की सतर्क नजरों के साए में। जब उन्हें विश्वास हो गया कि अब सब कुछ सही हाथों में होगा तो उन्होंने एक Guardian की भूमिका निभाई। जरूरत पड़ने पर उन्होंने अपनी सलाह और सुझाव जरूर दिए।

एक समाज सुधारक
कृष्णा कुमारी उन अग्रणी महिलाओं में मानी जाती हैं, जिन्होंने सबसे पहले पर्दा प्रथा को त्यागा। इतना ही नहीं उन्होंने अन्य महिलाओं को भी पर्दा छोड़ने का आह्वान किया। कृष्णा कुमारी बेटियों की पढ़ाई के प्रति भी हमेशा जागरूक करती रहतीं। इसी का नतीजा रहा कि शहर की अग्रणी बालिका स्कूल उनकी प्रेरणा से उनके नाम पर स्थापित किया गया।

The Girls’ school in Jodhpur, Rajamata Krishna Kumari Girls’ Public school ,which is amongst the best girls’ school of India.

एक स्वावलंबी महिला
हनवंत सिहं की अकाल मौत के बाद की परिस्थितियां तत्कालीन राजपरिवार के लिए बहुत कठिन थीं। राज-पाट जा चुका था और आय के स्त्रोत भी आजादी के पहले जैसे नहीं रहे। संकट के इस दौर में कृष्णा कुमारी ने अपने तीनों बच्चों को ही नहीं संभाला बल्कि सिमटती जा रही शाही शानौ-शौकत को बनाए रखा। आमदनी के सारे रास्ते बंद हो चुके थे। शाही परिवार को रोजमर्रा के खर्च के लिए दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था।

इसके बावजूद कृष्णा कुमारी ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने अपने बेटे गजसिंह को इंग्लैंड पढ़ने भेजा। वहीं दोनों बेटियों पूर्व केन्द्रीय मंत्री चन्द्रेश कुमारी और शैलेश कुमारी का विवाह भी किया।

आवक घटने और लगातार बढ़ते खर्चों ने शाही परिवार की आर्थिक स्थिति को पूरी तरह से गड़बड़ा दिया। बेटा विदेश में पढ़ रहा था और दोनों बेटियों की शादी हो चुकी थी। ऐसे में विशाल उम्मेद भवन का रखरखाव भी भारी पड़ने लगा। सत्तर के दशक में एक बार समय पर बिल न भर पाने के कारण उम्मेद भवन का बिजली कनेक्शन कटने तक की नौबत आ गई।

कृष्णा कुमारी ने बड़ी चतुराई के साथ परिवार की आर्थिक स्थिति को संभाला। राजपरिवार की गरिमा को हर परिप्रेक्ष्य में बनाए रखना। यह सब कृष्णाकुमारी ने बखूबी किया।

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एक जननेता
समय के साथ बदलती परिस्थितियों में कृष्णाकुमारी ने जनता की सेवा के लिए राजनीति में आने की ठानी। जब राजनीतिक में प्रतिनिधित्व करने की बात आईं तो उन्होंने 1971 में लोकसभा का चुनाव लड़ा। उस वक्त कांग्रेस के अलावा किसी पार्टी का कोई अस्तित्व ही नहीं था। कृष्णाकुमारी ने अपनी जनता को पुराने संबंध याद दिलाए। उन्होंने कहा- समय बदल्यां संबंध नहीं बदळै। जनता ने भी अपनी राजमाता का पूरा मान रखा और उन्हें इसका पूरा समर्थन रिकॉर्ड मतों से जिताकर दिया। पूर्व राजमाता ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान घूंघट प्रथा को हटाने की मुहिम भी छेड़ी। उन्होंने महिलाओं को परदे से बाहर आने को भी प्रेरित किया था।

एक राजमाता
मारवाड़ में जब भी अकाल पड़ा या कोई आपत्ति आई, कृष्णाकुमारी ने आगे बढ़कर मदद की। पर्दा प्रथा छुड़वाने में उनका अहम योगदान रहा। बेटियों की शिक्षा के लिए भी उन्होंने कई कार्यकिए। उन्होंने जनता से रिश्ता पूरे 7 दशकों तक बनाए रखा। मेहरानगढ़ हादसे के बाद जब लोग एकबारगी नाराज हुए तो उन्होंने बतौर राजमाता अपील की। इस अपील को मारवाड़ की जनता टाल नहीं पाई।

कृष्णाकुमारी का जोधपुर और यहां की जनता से अंत तक अपनापन का गहरा रिश्ता रहा। अपने शहर से उनका सरोकार ऐसा था कि वे हर कुछ दिन बाद भीतरी शहर से महिलाओं को बुलवाती थीं। उनके साथ बैठकर वे पूरे शहर की हलचल, बदलाव और लोगों की खबर लेती थीं। इसके मुताबिक वे कई सामाजिक कार्य भी करवाती थीं। बरसों-बरस उनकी यह सखियां उन्हें शहर की एक-एक बात से अवगत करवाती थीं।

नश्वर शरीर भले ही माँ चामुंडा और पंचतत्व में विलीन हो चुका हो, मारवाड़ से कृष्णा कुमारी जी को अलग करना उतना ही नामुमकिन रहेगा जितना उनसे मारवाड़ को अलग करना रहा।

“समय बदलने से संबंध नहीं बदला करते!!”

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